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तन्हाई में - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

तन्हाई में

मेरे शानों पे तिरा सर था निगाहें नमनाक

अब तो इक याद सी बाक़ी है सो वो भी क्या है?

घिर गया ज़ेहन ग़म-ए-ज़ीस्त के अंदाज़ों में

सर हथेली पे धरे सोच रहा हूँ बैठा

काश इस वक़्त कोई पीर-ए-ख़मीदा आ कर

किसी आज़ुर्दा तबीअत का फ़साना कहता!

इक धुँदलका सा है दम तोड़ चुका है सूरज

दिन के दामन पे हैं धब्बे से रिया-कारी के

और मग़रिब की फ़ना-गाह में फैला हुआ ख़ूँ

दबता जाता है सियाही की तहों के नीचे

दूर तालाब के नज़दीक वो सूखी सी बबूल

चंद टूटे हुए वीरान मकानों से परे

हाथ फैलाए बरहना सी खड़ी है ख़ामोश

जैसे ग़ुर्बत में मुसाफ़िर को सहारा न मिले

उस के पीछे से झिजकता हुआ इक गोल सा चाँद

उभरा बे-नूर शुआओं के सफ़ीने को लिए

मैं अभी सोच रहा हूँ कि अगर तू मिल जाए

ज़िंदगी गो है गिराँ-बार प इतनी न रहे

चंद आँसू ग़म-ए-गीती के लिए, चंद नफ़स

एक घाव है जिसे यूँ ही सिए जाते हैं

मैं अगर जी भी रहा हूँ तो तअज्जुब क्या है

मुझ से लाखों हैं जो ब-सूद जिए जाते हैं

कोई मरकज़ ही नहीं मेरे तख़य्युल के लिए

इस से क्या फ़ाएदा जीते रहे और जी न सके

अब इरादा है कि पत्थर के सनम पूजूँगा

ताकि घबराऊँ तो टकरा भी सकूँ मर भी सकूँ

ऐसे इंसानों से पत्थर के सनम अच्छे हैं

उन के क़दमों पे मचलता हो दमकता हुआ ख़ूँ

और वो मेरी मोहब्बत पे कभी हँस न सकीं

मैं भी बे-रंग निगाहों की शिकायत न करूँ

या कहीं गोशा-ए-अहराम के सन्नाटे में

जा के ख़्वाबीदा फ़राईन से इतना पूछूँ

हर ज़माने में कई थे कि ख़ुदा एक ही था

अब तो इतने हैं कि हैरान हूँ किस को पूजूँ?

अब तो मग़रिब की फ़ना-गाह में वो सोग नहीं

अक्स-ए-तहरीर है इक रात का हल्का हल्का

और पुर-सोज़ धुँदलके से वही गोल सा चाँद

अपनी बे-नूर शुआओं का सफ़ीना खेता

उभरा नमनाक निगाहों से मुझे तकता हुआ

जैसे खुल कर मिरे आँसू में बदल जाएगा

हाथ फैलाए इधर देख रही है वो बबूल

सोचती होगी कोई मुझ सा है ये भी तन्हा

आईना बन के शब ओ रोज़ तका करता है

कैसा तालाब है जो इस को हरा कर न सका?

यूँ गुज़ारे से गुज़र जाएँगे दिन अपने भी

पर ये हसरत ही रहेगी कि गुज़ारे न गए

ख़ून पी पी के पला करती है अँगूर की बेल

गर यही रंग-ए-तमन्ना था चलो यूँही सही

ख़ून पीती रही बढ़ती रही कोंपल कोंपल

छाँव तारों की शगूफ़ों को नुमू देती रही

नर्म शाख़ों को थपकते रहे अय्याम के हाथ

यूँही दिन बीत गए सुब्ह हुई शाम हुई

अब मगर याद नहीं क्या था मआल-ए-उम्मीद

एक तहरीर है हल्की सी लहू की बाक़ी

बेल फलती है तो काँटों को छुपा लेती है

ज़िंदगी अपनी परेशाँ थी परेशाँ ही रही

चाहता ये था मिरे ज़ख़्म के अँगूर बंधें

ये न चाहा था मिरा जाम तही रह जाए!

हाथ फैलाए इधर देख रही है वो बबूल

सोचती होगी कोई मुझ सा है ये भी तन्हा

घिर गया ज़ेहन ग़म-ए-ज़ीस्त के अंदाज़ों में

कैसा तालाब है जो इस को हरा कर न सका

काश इस वक़्त कोई पीर-ए-ख़मीदा आकर

मेरे शानों को थपकता ग़म-ए-तन्हाई में

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