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सब्ज़ा-ए-बेगाना - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

सब्ज़ा-ए-बेगाना

हसब-नसब है न तारीख़ ओ जा-ए-पैदाइश

कहाँ से आया था मज़हब न वलदियत मालूम

मक़ामी छोटे से ख़ैराती अस्पताल में वो

कहीं से लाया गया था वहाँ ये है मर्क़ूम

मरीज़ रातों को चिल्लाता है ''मिरे अंदर

असीर ज़ख़्मी परिंदा है इक, निकालो इसे

गुलू-गिरफ़्ता है ये हब्स-ए-दम है ख़ाइफ़ है

सितम-रसीदा है मज़लूम है बचा लो इसे''

मरीज़ चीख़ता है दर्द से कराहता है

ये वियतनाम, कभी डोमनिकन, कभी कश्मीर

ज़र-ए-कसीर, सियह क़ौमें, ख़ाम मादनियात

कसीफ़ तेल के चश्मे, अवाम, इस्तेहसाल

ज़मीं की मौत बहाइम, फ़िज़ाई जंग, सितम

इजारा-दारी, सुबुक गाम, दिलरुबा, अतफ़ाल

सरोद-ओ-नग़्मा, अदब, शेर, अम्न, बर्बादी

जनाज़ा इश्क़ का, दफ़ की सदाएँ, मुर्दा ख़याल

तरक़्क़ी, इल्म के गहवारे, रूह का मदफ़न

ख़ुदा का क़त्ल, अयाँ ज़ेर-ए-नाफ़ ज़ोहरा जमाल

तमाम रात ये बे-रब्त बातें करता है

मरीज़ सख़्त परेशानी का सबब है यहाँ

ग़रज़ कि जो था शिकायत का एक दफ़्तर था

नतीजा ये है उसी रोज़ मुंतक़िल करके

उसे इक और शिफ़ा-ख़ाने को रवाना किया

सुना गया है वहाँ नफ़्सियात के माहिर

तबीब हाज़िक़ ओ नब्बाज़ डॉक्टर कितने

तलब किए गए और सब ने इत्तिफ़ाक़ किया

ये कोई ज़ेहनी मरज़ है, मरीज़ ने शायद

कभी परिंदा कोई पाला होगा लेकिन वो

अदम-ए-तवज्जोही या इत्तिफ़ाक़ से यूँही

बिचारा मर गया उस मौत का असर है ये

अजीब चीज़ है तहत-ए-शुऊर इंसाँ का

ये और कुछ नहीं एहसास-ए-जुर्म है जिस ने

दिल ओ दिमाग़ पे क़ब्ज़ा किया है इस दर्जा

मरीज़ क़ातिल ओ मुजरिम समझता है ख़ुद को!

किसी की राय थी पसमाँदा क़ौम का इक फ़र्द

मरीज़ होगा इसी वास्ते सियह क़ौमें

ग़रीब के लिए इक टेबू बन गईं अफ़्सोस

कोई ये कहता था ये असल में है हुब्ब-ए-वतन

मरीज़ चाहता था हम कफ़ील हों अपने

किसी भी क़ौम के आगे न हाथ फैलाएँ

यहीं पे तेल के चश्मे हैं, वो करें दरयाफ़्त!

गुमान कुछ को था ये शख़्स कोई शायर है

जो चाहता था जहाँ-गर्दी में गुज़ारे वक़्त

हसीन औरतें माइल हों लुत्फ़-ओ-ऐश रहे

क़लम के ज़ोर से शोहरत मिले ज़माने में

ज़र-ए-कसीर भी हाथ आए इस बहाने से

मगर ग़रीब की सब कोशिशें गईं नाकाम

शिकस्त-ए-पैहम ओ एहसास-ए-ना-रसाई ने

ये हाल कर दिया मजरूह होगए आसाब

ग़रज़ कि नुक्ता-रस्सी में गुज़र गया सब वक़्त

वो चीख़ता ही रहा दर्द की दवा न मिली

नशिस्त बाद नशिस्त और मुआइने शब ओ रोज़

इन्हीं में वक़्त गुज़रता गया शिफ़ा न मिली

फिर एक शाम वहाँ सुरमा-दर-गुलू आई

जो उस के वास्ते गोया तबीब-ए-हाज़िक़ थी

किसी ने फिर न सुनी दर्द से भरी आवाज़

कराहता था जो ख़ामोश हो गया वो साज़

बरस गुज़र गए इस वाक़िए को, माज़ी की

अँधेरी गोद ने कब का छिपा लिया उस को

मगर सुना है शिफ़ा-ख़ाने के दर-ओ-दीवार

वो गिर्द-ओ-पेश जहाँ से कभी वो गुज़रा था

ख़राबे बस्तियाँ जंगल, उजाड़ राह-गुज़ार

उसी की चीख़ को दोहराए जा रहे हैं अभी

''कोई मुदावा करो ज़ालिमो मिरे अंदर

असीर ज़ख़्मी परिंदा है इक निकालो इसे

गुलू-गिरफ़्ता है ये हब्स-ए-दम है ख़ाइफ़ है

सितम-रसीदा है मज़लूम है बचा लो इसे''

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