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पस-मंज़र - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

पस-मंज़र

किस की याद चमक उट्ठी है धुँदले ख़ाके हुए उजागर

यूँही चंद पुरानी क़ब्रें खोद रहा हूँ तन्हा बैठा

कहीं किसी का मास न हड्डी कहीं किसी का रूप न छाया

कुछ कत्बों पर धुँदले धुँदले नाम खुदे हैं मैं जीवन-भर

इन कत्बों इन क़ब्रों ही को अपने मन का भेद बना कर

मुस्तक़बिल और हाल को छोड़े, दुख सुख सब में लिए फिरा हूँ

माज़ी की घनघोर घटा में चुपका बैठा सोच रहा हूँ

किस की याद चमक उट्ठी है, धुँदले ख़ाके हुए उजागर?

बैठा क़ब्रें खोद रहा हूँ, हूक सी बन कर एक इक मूरत

दर्द सा बन कर एक इक साया, जाग रहे हैं दूर कहीं से

आवाज़ें सी कुछ आती हैं, ''गुज़रे थे इक बार यहीं से''

हैरत बन कर देख रही है, हर जानी-पहचानी सूरत

गोया झूट हैं ये आवाज़ें, कोई मेल न था इन सब से

जिन का प्यार किसी के दिल में अपने घाव छोड़ गया है

जिन का प्यार किसी के दिल से सारे रिश्ते तोड़ गया है

और वो पागल इन रिश्तों को बैठा जोड़ रहा है कब से!

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