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मुकाफ़ात - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

मुकाफ़ात

अदम वजूद के मा-बैन फ़ासला है बहुत

ये फ़ासला हमें इक रोज़ तय तो करना है

वो किश्त-ए-गुल हो कि हम बोएँ राह में काँटे

कोई भी फ़ेल हो पर एक दिन तो मरना है

हमारे पीछे हैं वो भी हमें अज़ीज़ हैं जो

इसी तरफ़ से उन्हें एक दिन गुज़रना है

सबा-बुरीदा भी गुल हैं वफ़ा गुज़ीदा भी दिल

ये बात ज़ेहन में रखनी है और डरना है

किसी ने पहले लगाए थे साया-दार शजर

इन्हीं की छाँव में बैठे हैं आज हम आ कर

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