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मुफ़ाहमत - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

मुफ़ाहमत

जब उस का बोसा लेता था सिगरेट की बू नथनों में घुस जाती थी

मैं तम्बाकू-नोशी को इक ऐब समझता आया हूँ

लेकिन अब मैं आदी हूँ, ये मेरी ज़ात का हिस्सा है

वो भी मेरे दाँतों की बद-रंगी से मानूस है, इन की आदी है

जब हम दोनों मिलते हैं, लफ़्ज़ों से बेगाना से हो जाते हैं

कमरे में कुछ साँसें और पसीने की बू, तन्हाई रह जाती है!

हम दोनों शायद मुर्दा हैं एहसास का चश्मा सूखा है

या फिर शायद ऐसा है ये अफ़्साना बोसीदा है

दर्द-ए-ज़ेह से ज़ीस्त यूँही हलकान तड़पती रहती है

नए मसीहा आते हैं और सूली पर चढ़ जाते हैं

इक मटियाला इंसान सफ़ों को चीर के आगे बढ़ता है और मिम्बर से चिल्लाता है

हम मस्लूब के वारिस हैं ये ख़ून हमारा विर्सा है

और वो सब आदर्श, वो सब जो वजह-ए-मलामत ठहरा था

इस मटियाले शख़्स के गहरे मेदे में खुप जाता है

फिर तफ़सीरों और तावीलों की शक्ल में बाहर आता है

ये तावीलें मजबूरों का इक मौहूम सहारा हैं

या शायद सब का सहारा हैं

यूँही में आदर्श इंसान का जूया हूँ

सब ही सपने देखते हैं ख़्वाबों में हवा में उड़ते हैं

फिर इक मंज़िल आती है जब फूट फूट कर रोते हैं

शाख़ों की तरह टूटते हैं

इक रूह-ए-जान-ओ-दिल को जो दुनिया में सब से बढ़ कर है पा लेते हैं

फिर उस से नफ़रत करते हैं गो फिर भी मोहब्बत करते हैं!

मैं उस से नफ़रत करता हूँ वो मुझ को नीच समझती है

लेकिन जब हम मिलते हैं तन्हाई में तारीकी में

दोनों ऐसे हो जाते हैं जैसे आग़ुश्ता मिट्टी हैं

नफ़रत ज़म हो जाती है इक सन्नाटा रह जाता है

सन्नाटा तख़्लीक़-ए-ज़मीं के बाद जो हर-सू तारी था

हम दोनों टूटते रहते हैं जैसे हम कच्ची शाख़ें हैं

ख़्वाबों का ज़िक्र नहीं करते दोनों ने कभी जो देखते थे

ख़ुशियों का ज़िक्र नहीं करते जो कब की सुपुर्द-ए-ख़ाक हुईं

बस दोनों टूटते रहते हैं

मैं बादा-नोशी पर माइल हूँ, वो सिगरेट पीती रहती है

इक सन्नाटे की चादर में हम दोनों लिपटे जाते हैं

हम दोनों टूटते रहते हैं जैसे हम कच्ची शाख़ें हैं!

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