ख़मीर
गुलाब कीकर पे कब उगेगा
कि ख़ार दोनों में मुश्तरक है
में किस तरह सोचने लगा हूँ
मुझे रफ़ीक़ों पे कितना शक है
ये आदमियत अजीब शय है
सरिश्त में कौन सा नमक है
कि आग, पानी, हवा, ये मिट्टी
तो हर बशर का है ताना-बाना
कहाँ ग़लत हो गया मुरक्कब
न हम ही समझे न तुम ने जाना
ग़रीब के टूटे-फूटे घर में
हुआ तव्वुलुद तो शाह-ज़ादा
बुलंद मसनद के घर पियादा
वली के घर में हराम-ज़ादा
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