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काले सफ़ेद परों वाला परिंदा और मेरी एक शाम - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

काले सफ़ेद परों वाला परिंदा और मेरी एक शाम

जब दिन ढल जाता है, सूरज धरती की ओट में हो जाता है

और भिड़ों के छत्ते जैसी भिन-भिन

बाज़ारों की गर्मी, अफ़रा-तफ़री

मोटर, बस, बर्क़ी रेलों का हंगामा थम जाता है

चाय-ख़ानों नाच-घरों से कम-सिन लड़के

अपने हम-सिन माशूक़ों को

जिन की जिंसी ख़्वाहिश वक़्त से पहले जाग उठी है

ले कर जा चुकते हैं

बढ़ती फैलती ऊँची हिमाला जैसी तामीरों पर ख़ामोशी छा जाती है

थेटर तफ़रीह-गाहों में ताले पड़ जाते हैं

और ब-ज़ाहिर दुनिया सो जाती है

मैं अपने कमरे में बैठा सोचा करता हूँ

कुत्तों की दुम टेढ़ी क्यूँ होती है

ये चितकबरी दुनिया जिस का कोई भी किरदार नहीं है

कोई फ़ल्सफ़ा कोई पाइंदा अक़दार नहीं, मेआर नहीं है

इस पर अहल-ए-दानिश विद्वान, फ़लसफ़ी

मोटी मोटी अदक़ किताबें क्यूँ लिक्खा करते हैं?

'फ़ुर्क़त' की माँ ने शौहर के मरने पर कितना कोहराम मचाया था

लेकिन इद्दत के दिन पूरे होने से इक हफ़्ता पहले

'नीलम' के मामूँ के साथ बदायूँ जा पहुँची थी

बी-बी की सेहनक, कोंडे, फ़ातिहा-ख़्वानी

जंग-ए-सिफ्फ़ीन, जमल और बदर के क़िस्सों

सीरत-ए-नबवी, तर्क-ए-दुनिया और मौलवी-साहब के हलवे मांडे में क्या रिश्ता है?

दिन तो उड़ जाते हैं

ये सब काले पर वाले बगुले हैं

जो हँसते खेलते लम्हों को

अपने पंखों में मूँद के आँखों से ओझल हो जाते हैं

राहत जैसे ख़्वाब है ऐसे इंसानों का

जिन की उम्मीदों के दामन में पैवंद लगे हैं

जामा एक तरफ़ सीते हैं दूसरी जानिब फट जाता है

ये दुनिया लम्हा लम्हा जीती है

'मर्यम' अब कपड़े सेती है

आँखों की बीनाई साथ नहीं देती अब

और 'ग़ज़ंफ़र'

जो रूमाल में लड्डू बाँध के उस के घर में फेंका करता था

और उस की आँखों की तौसीफ़ में ग़ज़लें लिखवा कर लाया करता था

उस ने और कहीं शादी कर ली है

अब अपनी लकड़ी की टाल पे बैठा

अपनी कज-राई और जवानी के क़िस्से दोहराया करता है

टाल से उठ कर जब घर में आता है

बेटी पर क़दग़न रखता है

नए ज़माने की औलाद अब वैसी नहीं रह गई

बदकारी बढ़ती जाती है

जो दिन बीत गए कितने अच्छे थे!

बरगद के नीचे बैठो या सूली चढ़ जाओ

भैंसे लड़ने से बाज़ नहीं आएँगे

मौत से हम ने एक तआवुन कर रक्खा है

सड़कों पर से हर लम्हा इक मय्यत जाती है

पस-मंज़र में क्या होता है नज़र कहाँ जाती है

सामने जो कुछ है रंगों आवाज़ों चेहरों का मेला है!

गुर्गल उड़ कर वो पिलखन पर जा बैठी

पीपल में तोते ने बच्चे दे रखे हैं

गुलदुम जो पकड़ी थी कल बे-चारी मर गई

'नजमा' के बेले में कितनी कलियाँ आएँ हैं

फूलों की ख़ुश्बू से क्या क्या याद आता है

ये जब का क़िस्सा है सड़कों पर नई नई बिजली आई थी

और मुझे सीने में दिल होने का एहसास हुआ था

ईद के दिन हम ने लट्ठे की शलवारें सिलवाई थीं

और सिवैय्यों का ज़र्दा हम-साए में भेजवाया था

सब नीचे बैठक में बैठे थे

मैं ऊपर के कमरे में बैठा

खिड़की से 'ज़ैनब' के घर में फूलों के गुच्छे फेंक रहा था

कल 'ज़ैनब' का घर नीलाम हो रहा है

सरकारी तहवील में था इक मुद्दत से!

शायद पतझड़ का मौसम आ पहुँचा

पत्तों के गिरने की आवाज़ मुसलसल आती है

चेचक का टीका बीमारी को रोके रखता है

ज़ब्त-ए-तौलीद इस्क़ात वग़ैरा

इंसानी आबादी को बढ़ने से रोकेंगे

बंदर ने जब से दो टाँगों पर चलना सीखा

उस के ज़ेहन ने हरकत में आना सीखा है

पत्तों के गिरने की आवाज़ मुसलसल आती है

सड़कों पर रोज़ नए चेहरे मिलते हैं

मौत से हम ने एक तआवुन कर रक्खा है

पस-मंज़र में नज़र कहाँ जाती है

फूलों की ख़ुश्बू से क्या क्या याद आता है

चौक में जिस दिन फूल पड़े सड़ते थे

ख़ूनी दरवाज़े पर शहज़ादों की फाँसी का एलान हुआ था

ये दुनिया लम्हा लम्हा जीती है

दिल्ली की गलियाँ वैसी ही आबाद शाद हैं सब

दिन तो काले पर वाले बगुले हैं

जो सब लम्हों को

अपने पंखों में मूँद के आँखों से ओझल हो जाते हैं

चारों जानिब रंग रंग के झँडे उड़ते हैं

सब की जेबों में इंसानों के दुख-दर्द का दरमाँ

ख़ुशियों का नुस्ख़ा बंधा पड़ा है

लेकिन ऐसा क्यूँ है

जब नुस्ख़ा खुलता है

1857 जाता है

1947 आ जाता है

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