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कल की बात - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

कल की बात

ऐसे ही बैठे इधर भय्या थे दाएँ जानिब

उन के नज़दीक बड़ी आपा शबाना को लिए

अपनी ससुराल के कुछ क़िस्से लतीफ़े बातें

यूँ सुनाती थीं हँसे पड़ते थे सब

सामने अम्माँ वहीं खोले पिटारी अपनी

मुँह भरे पान से समधन की इन्हें बातों पर

झुँझलाती थीं कभी तंज़ से कुछ कहती थीं

हम को घेरे हुए बैठी थीं नईमा शहनाज़

वक़्फ़े वक़्फ़े से कभी दोनों में चश्मक होती

हस्ब-ए-मामूल सँभाले हुए ख़ाना-दारी

मंझली आपा कभी आती कभी जाती थीं

हम से दूर अब्बा उसी कमरे के इक कोने में

काग़ज़ात अपने अराज़ी के लिए बैठे थे

यक-ब-यक शोर हुआ मुल्क नया मुल्क बना

और इक आन में महफ़िल हुई दरहम-बरहम

आँख जो खोली तो देखा कि ज़मीं लाल है सब

तक़्वियत ज़ेहन ने दी ठहरो नहीं ख़ून नहीं

पान की पीक है ये अम्माँ ने थूकी होगी

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