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गूँगी औरत - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

गूँगी औरत

क्यूँ हैरत से तकती है एक इक चेहरे को

क्या तुझ को शिकवा है तेरी गोयाई की ताक़त

छीन के क़ुदरत ने बे-इंसाफ़ी की है?

क्या तुझ को एहसास है तेरे पास अगर गुफ़्तार की नेमत होती

तो इस चारों जानिब फैली हथियारों की दुनिया

सीना दहला देने वाले तय्यारों की इंसाँ-कुश आवाज़ें

आवाज़ें जिन में इंसाँ की रूह शबाना रोज़ दबी जाती है

महशर-ख़ेज़ आवाज़ें कल-पुर्ज़ों की जिन से नफ़सी-नफ़सी का आलम पैदा हो कर

दिन पर दिन इफ़रीत की सूरत में बढ़ता जाता है

इन आवाज़ों की हैबत-नाकी पर वावैला करती

तू आवाज़ उठाती उस फ़ाशी और तअस्सुब फैलाने वाले उंसुर को बढ़ता पा कर

जो हुब्ब-उल-वतनी के नाम पे इंसाँ-कुश होता जाता है

तू उन रुजहानात की ख़ूब मज़म्मत करती

उन से लड़ती जो इस दुनिया को पीछे ले जाने में कोशाँ हैं

'मज़हब और तहज़ीब'

'सक़ाफ़त' और 'तरक़्क़ी' कह कर रजअत-परवर हो जाते हैं

ले मैं तुझ को अपनी गोयाई देता हूँ!

ये मेरे काम नहीं आई कुछ

मैं ऐसा बुज़दिल हूँ जो हर बे-इंसाफ़ी को चुपके चुपके सहता है

जिस ने 'मक़्तल' और 'क़ातिल' दोनों देखे हैं

लेकिन दानाई कह कर

अपनी गोयाई को गूँगा कर रखा है!

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