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फ़ासला - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

फ़ासला

हवाएँ ले गईं वो ख़ाक भी उड़ा के जिसे

कभी तुम्हारे क़दम छू गए थे और मैं ने

ये जी से चाहा था दामन में बाँध लूँगा उसे

सुना था मैं ने कभी यूँ हुआ है दुनिया में

कि आग लेने गए और पयम्बरी पाई

कभी ज़मीं ने समुंदर उगल दिए लेकिन

भँवर ही ले गए कश्ती बचा के तूफ़ाँ से

में सोचता हूँ पयम्बर नहीं अगर न सही

कि इतना बोझ उठाने की मुझ में ताब न थी

मगर ये क्यूँ न हुआ ग़म मिला था दूरी का

तो हौसला भी मिला होता संग ओ आहन सा

मगर ख़ुदा को ये सब सोचने का वक़्त कहाँ?

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