बे-चारगी
हज़ार बार हुआ यूँ कि जब उमीद गई
गुलों से राब्ता टूटा न ख़ार अपने रहे
गुमाँ गुज़रने लगा हम खड़े हैं सहरा में
फ़रेब खाने की जा रह गई, न सपने रहे
नज़र उठा के कभी देख लेते थे ऊपर
न जाने कौन से आमाल की सज़ा है कि आज
ये वाहिमा भी गया सर पे आसमाँ है कोई
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