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अहद-ए-वफ़ा - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

अहद-ए-वफ़ा

यही शाख़ तुम जिस के नीचे किसी के लिए चश्म-ए-नम हो यहाँ अब से कुछ साल पहले

मुझे एक छोटी सी बच्ची मिली थी जिसे मैं ने आग़ोश में ले के पूछा था बेटी

यहाँ क्यूँ खड़ी रो रही हो मुझे अपने बोसीदा आँचल में फूलों के गहने दिखा कर

वो कहने लगी मेरा साथी उधर उस ने उँगली उठा कर बताया उधर उस तरफ़ ही

जिधर ऊँचे महलों के गुम्बद मिलों की सियह चिमनियाँ आसमाँ की तरफ़ सर उठाए खड़ी हैं

ये कह कर गया है कि मैं सोने चाँदी के गहने तिरे वास्ते लेने जाता हूँ 'रामी'

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