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आगही - अख़्तर-उल-ईमान कविता - Darsaal

आगही

मैं जब तिफ़्ल-ए-मकतब था, हर बात, हर फ़ल्सफ़ा जानता था

खड़े हो के मिम्बर पे पहरों सलातीन-ए-पारीन-ओ-हाज़िर

हिकायात-ए-शीरीन-ओ-तल्ख़ उन की, उन के दरख़्शाँ जराएम

जो सफ़्हात-ए-तारीख़ पर कारनामे हैं, उन के अवामिर

नवाही, हकीमों के अक़वाल, दाना ख़तीबों के ख़ुत्बे

जिन्हें मुस्तमंदों ने बाक़ी रक्खा उस का मख़्फ़ी ओ ज़ाहिर

फ़ुनून-ए-लतीफ़ा ख़ुदावंद के हुक्म-नामे, फ़रामीन

जिन्हें मस्ख़ करते रहे पीर-ज़ादे, जहाँ के अनासिर

हर इक सख़्त मौज़ू पर इस तरह बोलता था कि मुझ को

समुंदर समझते थे सब इल्म ओ फ़न का, हर इक मेरी ख़ातिर

तग-ओ-दौ में रहता था, लेकिन यकायक हुआ क्या ये मुझ को

ये महसूस होता है सोते से उट्ठा हूँ, हिलने से क़ासिर

किसी बहर के सूने साहिल पे बैठा हूँ गर्दन झुकाए

सर-ए-शाम आई है देखो तो है आगही कितनी शातिर!

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