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ज़रा सी देर थी बस इक दिया जलाना था - अख्तर शुमार कविता - Darsaal

ज़रा सी देर थी बस इक दिया जलाना था

ज़रा सी देर थी बस इक दिया जलाना था

और इस के बाद फ़क़त आँधियों को आना था

मैं घर को फूँक रहा था बड़े यक़ीन के साथ

कि तेरी राह में पहला क़दम उठाना था

वगरना कौन उठाता ये जिस्म ओ जाँ के अज़ाब

ये ज़िंदगी तो मोहब्बत का इक बहाना था

ये कौन शख़्स मुझे किर्चियों में बाँट गया

ये आइना तो मिरा आख़िरी ठिकाना था

पहाड़ भाँप रहा था मिरे इरादे को

वो इस लिए भी कि तेशा मुझे उठाना था

बहुत सँभाल के लाया हूँ इक सितारे तक

ज़मीन पर जो मिरे इश्क़ का ज़माना था

मिला तो ऐसे कि सदियों की आश्नाई हो!

तआरुफ़ उस से भी हालाँकि ग़ाएबाना था

मैं अपनी ख़ाक में रखता हूँ जिस को सदियों से

ये रौशनी भी कभी मेरा आस्ताना था

मैं हाथ हाथों में उस के न दे सका था 'शुमार'

वो जिस की मुट्ठी में लम्हा बड़ा सुहाना था

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