जन्नत का समाँ दिखा दिया है मुझ को
कौनैन का ग़म भुला दिया है मुझ को
कुछ होश नहीं कि हूँ मैं किस आलम में
साक़ी ने ये क्या पिला दिया है मुझ को
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न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
बस्ती की लड़कियों के नाम
ईद आई है ऐश-ओ-नोश का सामाँ कर
अब तो मिलिए बस लड़ाई हो चुकी
दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी
यूँ तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ
मिरी शाम-ए-ग़म को वो बहला रहे हैं
अँगूठी
अब वो बातें न वो रातें न मुलाक़ातें हैं
आओ बे-पर्दा तुम्हें जल्वा-ए-पिन्हाँ की क़सम