ईद आई है ऐश-ओ-नोश का सामाँ कर
इक साक़ी-ए-गुल-एज़ार को मेहमाँ कर
क़ुर्बानी है वाजिब आज 'अख़्तर' तू भी
तौबा को ख़ुदा के नाम पर क़ुर्बां कर
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उस मह-जबीं से आज मुलाक़ात हो गई
ऐ इश्क़ कहीं ले चल
वक़्त की क़द्र
आश्ना हो कर तग़ाफ़ुल आश्ना क्यूँ हो गए
किसी मग़रूर के आगे हमारा सर नहीं झुकता
किस को देखा है ये हुआ क्या है
ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में
इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ
रात भर उन का तसव्वुर दिल को तड़पाता रहा
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे