मय-ख़ाना-ब-दोश हैं घटाएँ साक़ी
पैमाना-फ़रोश हैं फ़ज़ाएँ साक़ी
इक जाम पिला के मस्त कर दे मुझ को
ग़ारत-गर-ए-होश हैं हवाएँ साक़ी
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वो अगर आ न सके मौत ही आई होती
जहाँ 'रेहाना' रहती थी
किया है आने का वादा तो उस ने
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
रात भर उन का तसव्वुर दिल को तड़पाता रहा
ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में
वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें
किसी मग़रूर के आगे हमारा सर नहीं झुकता
बरखा-रुत
मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ