ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता
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उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है
दिल-ए-दीवाना ओ अंदाज़-ए-बेबाकाना रखते हैं
बदनाम हो रहा हूँ
यक़ीन-ए-वादा नहीं ताब-ए-इंतिज़ार नहीं
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ से नींदों को बसा दे आ कर
ज़मान-ए-हिज्र मिटे दौर-ए-वस्ल-ए-यार आए
वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें
इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ
ऐ इश्क़ कहीं ले चल
किया है आने का वादा तो उस ने
याद आओ मुझे लिल्लाह न तुम याद करो
दिल में लेता है चुटकियाँ कोई