वो अगर आ न सके मौत ही आई होती
हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता
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ग़म-ए-आक़िबत है न फ़िक्र-ए-ज़माना
इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
एक हुस्न-फ़रोश से
बदनाम हो रहा हूँ
यूँ तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई
दावत
मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी
नन्हा क़ासिद
ऐ इश्क़ कहीं ले चल