उठते नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ
किस दर्जा ना-उमीद हैं परवरदिगार से
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ज़मान-ए-हिज्र मिटे दौर-ए-वस्ल-ए-यार आए
माना कि सब के सामने मिलने से है हिजाब
वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
मुझे ले चल
अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे
उस के अहद-ए-शबाब में जीना
थक गए हम करते करते इंतिज़ार
काँटों से दिल लगाओ जो ता-उम्र साथ दें
है क़यामत तिरे शबाब का रंग
हमारे हाथ में कब साग़र-ए-शराब नहीं
किसी मग़रूर के आगे हमारा सर नहीं झुकता