मुद्दतें हो गईं बिछड़े हुए तुम से लेकिन
आज तक दिल से मिरे याद तुम्हारी न गई
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इश्क़ को नग़्मा-ए-उम्मीद सुना दे आ कर
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
माना कि सब के सामने मिलने से है हिजाब
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
मिरी शाम-ए-ग़म को वो बहला रहे हैं
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
कूचा-ए-हुस्न छुटा तो हुए रुस्वा-ए-शराब
किसी मग़रूर के आगे हमारा सर नहीं झुकता
कुछ इस तरह से याद आते रहे हो
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर