मिट चले मेरी उमीदों की तरह हर्फ़ मगर
आज तक तेरे ख़तों से तिरी ख़ुशबू न गई
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उन को बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
जहाँ 'रेहाना' रहती थी
बरखा-रुत
अब तो मिलिए बस लड़ाई हो चुकी
यक़ीन-ए-वादा नहीं ताब-ए-इंतिज़ार नहीं
मुबारक मुबारक नया साल आया
सू-ए-कलकत्ता जो हम ब-दिल-ए-दीवाना चले
अँगूठी
इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता