है क़यामत तिरे शबाब का रंग
रंग बदलेगा फिर ज़माने का
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थक गए हम करते करते इंतिज़ार
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता
कूचा-ए-हुस्न छुटा तो हुए रुस्वा-ए-शराब
बजा कि है पास-ए-हश्र हम को करेंगे पास-ए-शबाब पहले
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
लॉन्ड्री खोली थी उस के इश्क़ में
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
अँगूठी
ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर
वादा उस माह-रू के आने का