ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना
ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते
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उस के अहद-ए-शबाब में जीना
है क़यामत तिरे शबाब का रंग
न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
ला पिला साक़ी शराब-ए-अर्ग़वानी फिर कहाँ
मिट चले मेरी उमीदों की तरह हर्फ़ मगर
बस्ती की लड़कियों के नाम
उस मह-जबीं से आज मुलाक़ात हो गई
किया है आने का वादा तो उस ने
हमारे हाथ में कब साग़र-ए-शराब नहीं
चमन में रहने वालों से तो हम सहरा-नशीं अच्छे
दावत
किस को देखा है ये हुआ क्या है