ग़म-ए-आक़िबत है न फ़िक्र-ए-ज़माना
पिए जा रहे हैं जिए जा रहे हैं
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Gulzar
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Allama Iqbal
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Wasi Shah
Jaun Eliya
Habib Jalib
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इन्ही ग़म की घटाओं से ख़ुशी का चाँद निकलेगा
पलट सी गई है ज़माने की काया
किसी मग़रूर के आगे हमारा सर नहीं झुकता
है क़यामत तिरे शबाब का रंग
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
झूम कर बदली उठी और छा गई
आश्ना हो कर तग़ाफ़ुल आश्ना क्यूँ हो गए
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ
कुछ इस तरह से याद आते रहे हो
एक हुस्न-फ़रोश से
बजा कि है पास-ए-हश्र हम को करेंगे पास-ए-शबाब पहले