ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी
देखें दिखलाए अभी गर्दिश-ए-दौराँ क्या क्या
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इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ
अब वो बातें न वो रातें न मुलाक़ातें हैं
न वो ख़िज़ाँ रही बाक़ी न वो बहार रही
है क़यामत तिरे शबाब का रंग
जहाँ 'रेहाना' रहती थी
इन्ही ग़म की घटाओं से ख़ुशी का चाँद निकलेगा
मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
किया है आने का वादा तो उस ने
ग़म-ए-आक़िबत है न फ़िक्र-ए-ज़माना
हर एक जल्वा-ए-रंगीं मिरी निगाह में है
एक शाएरा की शादी पर
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ से नींदों को बसा दे आ कर