अब जी में है कि उन को भुला कर ही देख लें
वो बार बार याद जो आएँ तो क्या करें
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आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
एक हुस्न-फ़रोश से
जहाँ 'रेहाना' रहती थी
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
इश्क़ को नग़्मा-ए-उम्मीद सुना दे आ कर
नज़्र-ए-वतन
मुझे ले चल
ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी
न वो ख़िज़ाँ रही बाक़ी न वो बहार रही
उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है
ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब