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वक़्त की क़द्र - अख़्तर शीरानी कविता - Darsaal

वक़्त की क़द्र

दावत

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

चमन की गोद में आ कर समा भी जा सलमा

कली कली में बहारें बसा भी जा सलमा

मुझे जुनूँ का सबक़ फिर पढ़ा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

मिलेंगे हश्र में मत कह ये बार बार मुझे

हो कैसे हश्र के वादे पे ए'तिबार मुझे

ख़ुदा के दिल पे नहीं कोई इख़्तियार मुझे

ख़ुदा को मान यहीं हश्र उठा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

नशात-ए-उम्र को उम्मीद पर निसार न कर

विसाल-ए-सुब्ह-ए-क़यामत का इंतिज़ार न कर

रियाज़-ए-ख़ुल्द की बातों का ए'तिबार न कर

फ़रेब वादा-ए-फ़र्दा मिटा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

किसे ख़बर है क़यामत में हम मिलें न मिलें

फ़ज़ा-ए-रौज़ा-ए-जन्नत में हम मिलें न मिलें

कशाकश-ए-अबदिय्यत में हम मिलें न मिलें

कशाकश-ए-अबदिय्यत भुला भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

गँवा न सोग में अपने शबाब की रातें

नज़र न आएँगी फिर माहताब की रातें

ये निकहतों का हुजूम और ये ख़्वाब की रातें

फ़ज़ा में ख़्वाब-ए-हसीं बन के छा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

ख़बर ले जल्द कि उम्र-ए-अज़ीज़ फ़ानी है

सरा-ए-दहर की हर चीज़ आनी-जानी है

ब-रंग-ए-अब्र-ए-रवाँ फ़स्ल-ए-नौजवानी है

छलकने वाला है साग़र पिला भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

किसे ख़बर ये घटाएँ रहें रहें न रहें

ये निकहतें ये हवाएँ रहें रहें न रहें

ये मस्तियाँ ये फ़ज़ाएँ रहें रहें न रहें

शराब-ए-वस्ल का साग़र पिला भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

सबात-ए-अहद ज़माने में किसी ने पाया है

ज़माना रंग बदलने को रंग लाया है

बहार-ए-उम्र-ए-रवाँ बादलों का साया है

बहार-ए-उम्र की ख़ुशियाँ मना भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

तिरे ख़याल को दिल में बसाए बैठे हैं

ख़ुदाई हो कि ख़ुदा हो भुलाए बैठे हैं

सुरूर-ए-अहद-ए-जवानी लुटाए बैठे हैं

तू आ के क़द्र-ए-जवानी सिखा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

ये फ़स्ल और ये बहारें नज़र न आएँगी फिर

ये बादलों की क़तारें नज़र न आएँगी फिर

ये हल्की हल्की फुवारें नज़र न आएँगी फिर

शराब-ए-ऐश-ए-मसर्रत लुंढा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

बता तू क्या ये नज़ारे उजड़ न जाएँगे

ये नद्दियाँ ये किनारे उजड़ न जाएँगे

ये चाँद और ये किनारे उजड़ न जाएँगे

सितारा-वार शुआएँ लुटा भी भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

ग़मों पे की हैं फ़िदा शादमानियाँ हम ने

ख़ुदा के नाम पे तज दीं जवानियाँ हम ने

गुज़ार दी हैं यूँही ज़िंदगानीयाँ हम ने

दम-ए-अख़ीर तू ग़म से छुड़ा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

फ़ना-नसीब हैं ये सब्ज़ा-ज़ार के मंज़र

ये कोहसार दिल-ए-जूएबार के मंज़र

नज़र न आएँगे फिर ये बहार के मंज़र

अभी समाँ है बहारें दिखा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

ख़बर ले जल्द कि बहकी हुई बहार है आज

नशात-ए-ख़ुल्द से मामूर सब्ज़ा-ज़ार है आज

अजल पे भी मिरी हस्ती को इख़्तियार है आज

ग़ुरूर-ए-इश्क़ की हिम्मत बढ़ा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

तू हुक्म दे तो सितारों को छीन लाऊँ मैं

फ़लक से उस के नज़ारों को छीन लाऊँ मैं

इरम की मस्त बहारों को छीन लाऊँ मैं

ख़ुदाई को ये तमाशा दिखा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

तू सामने हो तो कौन-ओ-मकाँ को गुम कर दूँ

ख़म-ए-तरब में ख़म-ए-आसमाँ को गुम कर दूँ

दुई हो फ़र्द तो दोनों जहाँ को गुम कर दूँ

ब-रंग-ए-रूह बदन में समा भी जा सलमा

बहार बीतने वाली है आ भी जा सलमा

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