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न वो ख़िज़ाँ रही बाक़ी न वो बहार रही - अख़्तर शीरानी कविता - Darsaal

न वो ख़िज़ाँ रही बाक़ी न वो बहार रही

न वो ख़िज़ाँ रही बाक़ी न वो बहार रही

रही तो मेरी कहानी ही यादगार रही

वही नज़र है नज़र जो बईं-हमा पस्ती

सितारा-गीर रही कहकशाँ शिकार रही

शब-ए-बहार में तारों से खेलने वाले

किसी की आँख भी शब भर सितारा-बार रही

तमाम उम्र रहा गरचे मैं तही-पहलू

बसी हुई मिरे पहलू में बू-ए-यार रही

कोई अज़ीज़ न ठहरा हमारे दफ़्न के बाद

रही जो पास तो शम्अ सर-ए-मज़ार रही

वो फूल हूँ जो खिला हो ख़िज़ाँ के मौसम में

तमाम उम्र मुझे हसरत-ए-बहार रही

कभी न भूलेंगी उस शब की लज़्ज़तें 'अख़्तर'

कि मेरे सीने पे वो ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बार रही

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