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कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता - अख़्तर शीरानी कविता - Darsaal

कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता

कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता

तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता

तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद

बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता

वो अगर आ न सके मौत ही आई होती

हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता

ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब

ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता

अज़्मत-ए-गिर्या को कोताह-नज़र क्या समझें

अश्क अगर अश्क न होता तो सितारा होता

लब-ए-ज़ाहिद पे है अफ़्साना-ए-हूर-ए-जन्नत

काश इस वक़्त मिरा अंजुमन-आरा होता

ग़म-ए-उल्फ़त जो न मिलता ग़म-ए-हस्ती मिलता

किसी सूरत तो ज़माने में गुज़ारा होता

किस को फ़ुर्सत थी ज़माने के सितम सहने की

गर न उस शोख़ की आँखों का इशारा होता

कोई हमदर्द ज़माने में न पाया 'अख़्तर'

दिल को हसरत ही रही कोई हमारा होता

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