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अश्क-बारी न मिटी सीना-फ़िगारी न गई - अख़्तर शीरानी कविता - Darsaal

अश्क-बारी न मिटी सीना-फ़िगारी न गई

अश्क-बारी न मिटी सीना-फ़िगारी न गई

लाला-कारी किसी सूरत भी हमारी न गई

कूचा-ए-हुस्न छुटा तो हुए रुस्वा-ए-शराब

अपनी क़िस्मत में जो लिक्खी थी वो ख़्वारी न गई

उन की मस्ताना निगाहों का नहीं कोई क़ुसूर

नासेहो ज़िंदगी ख़ुद हम से सँवारी न गई

चश्म-ए-महज़ूँ पे न लहराई वो ज़ुल्फ़-ए-शादाब

ये परी हम से भी शीशे में उतारी न गई

मुद्दतें हो गईं बिछड़े हुए तुम से लेकिन

आज तक दिल से मिरे याद तुम्हारी न गई

शाद ओ ख़ंदाँ रहे हम यूँ तो जहाँ में लेकिन

अपनी फ़ितरत से कभी दर्द-शिआरी न गई

सैकड़ों बार मिरे सामने की तौबा मगर

तौबा 'अख़्तर' कि तिरी बादा-गुसारी न गई

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