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यारान-ए-तेज़-गाम से रंजिश कहाँ है अब - अख़तर शाहजहाँपुरी कविता - Darsaal

यारान-ए-तेज़-गाम से रंजिश कहाँ है अब

यारान-ए-तेज़-गाम से रंजिश कहाँ है अब

मंज़िल पे जा पहुँचने की ख़्वाहिश कहाँ है अब

ज़िंदाँ में दिन भी रात ही जैसा गुज़र गया

अहल-ए-जुनूँ वो पहली सी शोरिश कहाँ है अब

जाम-ए-शराब अब तो मिरे सामने न रख

आँखों में नूर हाथ में जुम्बिश कहाँ है अब

हल्क़ा-ब-गोश कोई न अब यार है यहाँ

वो रोज़-ओ-शब की दाद-ओ-सताइश कहाँ है अब

जीने का हक़ जो माँगा तो तेवर बदल गए

वो मेरे मुहसिनोंं की नवाज़िश कहाँ है अब

चेहरे पे गर्द-ए-उम्र-ए-रवाँ का ज़ुहूर है

बाँहों के बाले बोसों की बारिश कहाँ है अब

ख़ंजर हो या कि दशना हो या तेग़ या क़लम

'अख़्तर' वो आब और वो बुर्रिश कहाँ है अब

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