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वक़्त बे-रहम है मक़्तल की ज़मीनों जैसा - अख़तर शाहजहाँपुरी कविता - Darsaal

वक़्त बे-रहम है मक़्तल की ज़मीनों जैसा

वक़्त बे-रहम है मक़्तल की ज़मीनों जैसा

और हमदर्द है मुख़्लिस की दुआओं जैसा

कोई मंज़र नहीं बरसात के मौसम में भी

उस की ज़ुल्फ़ों से फिसलती हुई धूपों जैसा

आबलों की तरह रहने न दिया अश्कों को

मेरी पलकों ने किया काम बबूलों जैसा

संग-दिल है न फ़रेबी न जफ़ाकार है वो

मेरा महबूब है मा'सूम फ़रिश्तों जैसा

मैं तो इंसान हूँ तुम जैसा हूँ ठहरो लोगो

मुझ पे इल्ज़ाम लगाओ न रसूलों जैसा

ज़ेहन से महव हुए गुज़रा ज़माना 'अख़्तर'

एक चेहरा है मगर अब भी गुलाबों जैसा

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