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इक अजब आलम है दिल का ज़िंदगी की राह में - अख्तर सईदी कविता - Darsaal

इक अजब आलम है दिल का ज़िंदगी की राह में

इक अजब आलम है दिल का ज़िंदगी की राह में

देखता हूँ कुछ कमी सी हुस्न-ए-महर-ओ-माह में

उस के होते भी मैं इक एहसास-ए-तन्हाई में हूँ

जल्वा-गर है वो जो मुद्दत से दिल-ए-आगाह में

दूर हो कर मुझ से चलती है हवा-ए-जाँ-फ़ज़ा

जी रहा हूँ फिर भी ऐसे मौसम-ए-जाँकाह में

हर क़दम पर क्यूँ डराती है मुझे ये ज़िंदगी

ये जो मेरी रौशनी थी ज़ुल्मतों की राह में

कैसे उठ्ठूँ तेरे दर से ऐ जहान-ए-आरज़ू

एक आलम को समेटे दामन-ए-कोताह में

ऐ परस्तारान-ए-दुनिया दिल की दुनिया है कुछ और

कौन ठोकर खाए बिन रहता है उस की राह में

अब न पहचाने कोई 'अख़्तर' तो इस का क्या इलाज

उम्र सारी काट दी है तू ने रस्म-ओ-राह में

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