इक अजब आलम है दिल का ज़िंदगी की राह में
इक अजब आलम है दिल का ज़िंदगी की राह में
देखता हूँ कुछ कमी सी हुस्न-ए-महर-ओ-माह में
उस के होते भी मैं इक एहसास-ए-तन्हाई में हूँ
जल्वा-गर है वो जो मुद्दत से दिल-ए-आगाह में
दूर हो कर मुझ से चलती है हवा-ए-जाँ-फ़ज़ा
जी रहा हूँ फिर भी ऐसे मौसम-ए-जाँकाह में
हर क़दम पर क्यूँ डराती है मुझे ये ज़िंदगी
ये जो मेरी रौशनी थी ज़ुल्मतों की राह में
कैसे उठ्ठूँ तेरे दर से ऐ जहान-ए-आरज़ू
एक आलम को समेटे दामन-ए-कोताह में
ऐ परस्तारान-ए-दुनिया दिल की दुनिया है कुछ और
कौन ठोकर खाए बिन रहता है उस की राह में
अब न पहचाने कोई 'अख़्तर' तो इस का क्या इलाज
उम्र सारी काट दी है तू ने रस्म-ओ-राह में
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