ज़िंदगी क्या हुए वो अपने ज़माने वाले
याद आते हैं बहुत दिल को दुखाने वाले
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बंद रक्खोगे दरीचे दिल के यारो कब तलक
हर मौज गले लग के ये कहती है ठहर जाओ
ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी
तुम से छुट कर ज़िंदगी का नक़्श-ए-पा मिलता नहीं
मुझे अब देखती है ज़िंदगी यूँ बे-नियाज़ाना
चंद उलझी हुई साँसों की अता हूँ क्या हूँ
आज भी दश्त-ए-बला में नहर पर पहरा रहा
बंद कर दे कोई माज़ी का दरीचा मुझ पर
मआल-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार कुछ भी नहीं
कहें किस से हमारा खो गया क्या
ज़माना इश्क़ के मारों को मात क्या देगा