ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी
दिल-ए-शोरीदा थक कर सो गया क्या
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ज़माना इश्क़ के मारों को मात क्या देगा
मुझे अब देखती है ज़िंदगी यूँ बे-नियाज़ाना
आ कि मैं देख लूँ खोया हुआ चेहरा अपना
सुन रहा हूँ बे-सदा नग़्मा जो मैं बा-चश्म-ए-तर
गुज़रना है जी से गुज़र जाइए
कभी ज़बाँ पे न आया कि आरज़ू क्या है
हर मौज गले लग के ये कहती है ठहर जाओ
बहुत क़रीब रही है ये ज़िंदगी हम से
ये दश्त वो है जहाँ रास्ता नहीं मिलता
बहें न आँख से आँसू तो नग़्मगी बे-सूद
सफ़र ही शर्त-ए-सफ़र है तो ख़त्म क्या होगा
बला-ए-तीरा-शबी का जवाब ले आए