किस जुर्म-ए-आरज़ू की सज़ा है ये ज़िंदगी
ऐसा तो ऐ ख़ुदा मैं गुनहगार भी नहीं
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लब-ए-सुकूत पे इक हर्फ़-ए-बे-नवा भी नहीं
बला-ए-तीरा-शबी का जवाब ले आए
ये बे-सबब नहीं आए हैं आँख में आँसू
दुश्मन-ए-जाँ ही सही साथ तो इक उम्र का है
इसी मोड़ पर हम हुए थे जुदा
हम ने माना इक न इक दिन लौट के तू आ जाएगा
ज़िंदगी छीन ले बख़्शी हुई दौलत अपनी
तुम हो या छेड़ती है याद-ए-सहर कोई तो है
कभी ज़बाँ पे न आया कि आरज़ू क्या है
निगाहें मुंतज़िर हैं किस की दिल को जुस्तुजू क्या है
ज़िंदगी क्या हुए वो अपने ज़माने वाले
ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी