हर मौज गले लग के ये कहती है ठहर जाओ
दरिया का इशारा है कि हम पार उतर जाएँ
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मुझे अब देखती है ज़िंदगी यूँ बे-नियाज़ाना
ना-उमीदी हर्फ़-ए-तोहमत ही सही क्या कीजिए
दुश्मन-ए-जाँ ही सही साथ तो इक उम्र का है
तू कहानी ही के पर्दे में भली लगती है
ज़िंदगी छीन ले बख़्शी हुई दौलत अपनी
दीदनी है ज़ख़्म-ए-दिल और आप से पर्दा भी क्या
ज़िंदगी क्या हुए वो अपने ज़माने वाले
किस को फ़ुर्सत थी कि 'अख़्तर' देखता मेरी तरफ़
सैर-गाह-ए-दुनिया का हासिल-ए-तमाशा क्या
मआल-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार कुछ भी नहीं
दिल-ए-शोरीदा की वहशत नहीं देखी जाती
ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी