चराग़ ले के उसे ढूँडने चला हूँ मैं
जो आफ़्ताब की मानिंद इक उजाला है
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बहुत क़रीब रही है ये ज़िंदगी हम से
बला-ए-तीरा-शबी का जवाब ले आए
ज़िंदगी क्या हुए वो अपने ज़माने वाले
किसी के तुम हो किसी का ख़ुदा है दुनिया में
ये बे-सबब नहीं आए हैं आँख में आँसू
ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी
दुश्मन-ए-जाँ ही सही साथ तो इक उम्र का है
बंद कर दे कोई माज़ी का दरीचा मुझ पर
गुज़रना है जी से गुज़र जाइए
कभी ज़बाँ पे न आया कि आरज़ू क्या है
मैं सफ़र में हूँ मगर सम्त-ए-सफ़र कोई नहीं