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तुम से छुट कर ज़िंदगी का नक़्श-ए-पा मिलता नहीं - अख़्तर सईद ख़ान कविता - Darsaal

तुम से छुट कर ज़िंदगी का नक़्श-ए-पा मिलता नहीं

तुम से छुट कर ज़िंदगी का नक़्श-ए-पा मिलता नहीं

फिर रहा हूँ कू-ब-कू अपना पता मिलता नहीं

मैं हूँ या फिरता है कोई और मेरे भेस में

किस से पूछूँ कोई सूरत-आश्ना मिलता नहीं

नक़्श-ए-हैरत ही न था पुर्सान-ए-हाल-ए-ग़म भी था

तुम ने जो तोड़ा है अब वो आईना मिलता नहीं

ना-उमीदी हर्फ़-ए-तोहमत ही सही क्या कीजिए

तुम क़रीब आते नहीं हो और ख़ुदा मिलता नहीं

उस के दिल से अपना अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल पूछिए

जिस के दिल को दर्द का भी आसरा मिलता नहीं

इक न इक रिश्ता इसी दुनिया से था अपना कभी

सोचता हूँ और कोई सिलसिला मिलता नहीं

कोई साए की तरह चलता है 'अख़्तर' साथ साथ

दोस्तदार-ए-दिल है लेकिन बरमला मिलता नहीं

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