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सफ़र ही शर्त-ए-सफ़र है तो ख़त्म क्या होगा - अख़्तर सईद ख़ान कविता - Darsaal

सफ़र ही शर्त-ए-सफ़र है तो ख़त्म क्या होगा

सफ़र ही शर्त-ए-सफ़र है तो ख़त्म क्या होगा

तुम्हारे घर से उधर भी ये रास्ता होगा

ज़माना सख़्त गिराँ ख़्वाब है मगर ऐ दिल

पुकार तो सही कोई तो जागता होगा

ये बे-सबब नहीं आए हैं आँख में आँसू

ख़ुशी का लम्हा कोई याद आ गया होगा

मिरा फ़साना हर इक दिल का माजरा तो न था

सुना भी होगा किसी ने तो क्या सुना होगा

फिर आज शाम से पैकार जान ओ तन में है

फिर आज दिल ने किसी को भुला दिया होगा

विदा कर मुझे ऐ ज़िंदगी गले मिल के

फिर ऐसा दोस्त न तुझ से कभी जुदा होगा

मैं ख़ुद से दूर हुआ जा रहा हूँ फिर 'अख़्तर'

वो फिर क़रीब से हो कर गुज़र गया होगा

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