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लब-ए-सुकूत पे इक हर्फ़-ए-बे-नवा भी नहीं - अख़्तर सईद ख़ान कविता - Darsaal

लब-ए-सुकूत पे इक हर्फ़-ए-बे-नवा भी नहीं

लब-ए-सुकूत पे इक हर्फ़-ए-बे-नवा भी नहीं

वो रात है कि किसी को सर-ए-दुआ भी नहीं

ख़मोश रहिए तो क्या क्या सदाएँ आती हैं

पुकारिए तो कोई मुड़ के देखता भी नहीं

जो देखिए तो जिलौ में हैं मेहर-ओ-माह-ओ-नुजूम

जो सोचिए तो सफ़र की ये इब्तिदा भी नहीं

क़दम हज़ार जिहत-आश्ना सही लेकिन

गुज़र गया हूँ जिधर से वो रास्ता भी नहीं

किसी के तुम हो किसी का ख़ुदा है दुनिया में

मिरे नसीब में तुम भी नहीं ख़ुदा भी नहीं

ये कैसा ख़्वाब है पिछले पहर के सन्नाटो

बिखर गया है और आँखों से छूटता भी नहीं

इस इज़्दिहाम में क्या नाम क्या निशाँ 'अख़्तर'

मिला वो हँस के मगर मुझ से आश्ना भी नहीं

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