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कभी ज़बाँ पे न आया कि आरज़ू क्या है - अख़्तर सईद ख़ान कविता - Darsaal

कभी ज़बाँ पे न आया कि आरज़ू क्या है

कभी ज़बाँ पे न आया कि आरज़ू क्या है

ग़रीब दिल पे अजब हसरतों का साया है

सबा ने जागती आँखों को चूम चूम लिया

न जाने आख़िर-ए-शब इंतिज़ार किस का है

ये किस की जल्वागरी काएनात है मेरी

कि ख़ाक हो के भी दिल शोला-ए-तमन्ना है

तिरी नज़र की बहार-आफ़रीनियाँ तस्लीम

मगर ये दिल में जो काँटा सा इक खटकता है

जहान-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र की उड़ा रही है हँसी

ये ज़िंदगी जो सर-ए-रहगुज़र तमाशा है

ये दश्त वो है जहाँ रास्ता नहीं मिलता

अभी से लौट चलो घर अभी उजाला है

यही रहा है बस इक दिल के ग़म-गुसारों में

ठहर ठहर के जो आँसू पलक तक आता है

ठहर गए ये कहाँ आ के रोज़ ओ शब 'अख़्तर'

कि आफ़्ताब है सर पर मगर अँधेरा है

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