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दिल की राहें ढूँडने जब हम चले - अख़्तर सईद ख़ान कविता - Darsaal

दिल की राहें ढूँडने जब हम चले

दिल की राहें ढूँडने जब हम चले

हम से आगे दीदा-ए-पुर-नम चले

तेज़ झोंका भी है दिल को नागवार

तुम से मस हो कर हवा कम कम चले

थी कभी यूँ क़द्र-ए-दिल इस बज़्म में

जैसे हाथों-हाथ जाम-ए-जम चले

हाए वो आरिज़ और उस पर चश्म-ए-नम

गुल पे जैसे क़तरा-ए-शबनम चले

आमद-ए-सैलाब का वक़्फ़ा था वो

जिस को ये जाना कि आँसू थम चले

कहते हैं गर्दिश में हैं सात आसमाँ

अज़-सर-ए-नौ क़िस्सा-ए-आदम चले

खिल ही जाएगी कभी दिल की कली

फूल बरसाता हुआ मौसम चले

बे-सुतूँ छत के तले इस धूप में

ढूँडने किस को ये मेरे ग़म चले

कौन जीने के लिए मरता रहे

लो सँभालो अपनी दुनिया हम चले

कुछ तो हो अहल-ए-नज़र को पास-ए-दर्द

कुछ तो ज़िक्र-ए-आबरू-ए-ग़म चले

कुछ अधूरे ख़्वाब आँखों में लिए

हम भी 'अख़्तर' दरहम ओ बरहम चले

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