शनासाई
रात के हाथ पे जलती हुई इक शम-ए-वफ़ा
अपना हक़ माँगती है
दूर ख़्वाबों के जज़ीरे में
किसी रौज़न से
सुब्ह की एक किरन झाँकती है
वो किरन दरपा-ए-आज़ार हुई जाती है
मेरी ग़म-ख़्वार हुई जाती है
आओ किरनों को अंधेरों का कफ़न पहनाएँ
इक चमकता हुआ सूरज सर-ए-मक़्तल लाएँ
तुम मिरे पास रहो
और यही बात कहो
आज भी हर्फ़-ए-वफ़ा बाइस-ए-रुस्वाई है
अपने क़ातिल से मिरी ख़ूब शनासाई है
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