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ख़त-ए-राह-गुज़ार - अख़्तर पयामी कविता - Darsaal

ख़त-ए-राह-गुज़ार

सिलसिले ख़्वाब के गुमनाम जज़ीरों की तरह

सीना-ए-आब पे हैं रक़्स-कुनाँ

कौन समझे कि ये अंदेशा-ए-फ़र्दा की फ़ुसूँ-कारी है

माह ओ ख़ुर्शीद ने फेंके हैं कई जाल इधर

तीरगी गेसू-ए-शब-तार की ज़ंजीर लिए

मेरे ख़्वाबों को जकड़ने के लिए आई है

ये तिलिस्म-ए-सहर-ओ-शाम भला क्या जाने

कितने दिल ख़ून हैं अंगुश्त हिनाई के लिए

कितने दिल बुझ गए जब रू-ए-निगाराँ में चमक आई है

ख़्वाब हैं क़ैद-ए-मकाँ क़ैद-ए-ज़माँ से आगे

किस को मिल सकता है उड़ते हुए लम्हों का सुराग़

कितनी सदियों की मसाफ़त से उभरता है

ख़त-ए-राह-गुज़ार

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