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घरौंदे - अख़्तर पयामी कविता - Darsaal

घरौंदे

घंटियाँ गूँज उठीं गूँज उठीं

गैस बेकार जलाते हो बुझा दो बर्नर

अपनी चीज़ों को उठा कर रक्खो

जाओ घर जाओ लगा दो ये किवाड़

एक नीली सी हसीं रंग की कॉपी ले कर

मैं यहाँ घर को चला आता हूँ

एक सिगरेट को सुलगाता हूँ

वो मिरी आस में बैठी होगी

वो मिरी राह भी तकती होगी

क्यूँ अभी तक नहीं आए आख़िर

सोचते सोचते थक जाएगी

घबराएगी

और जब दूर से देखेगी तो खिल जाएगी

उस के जज़्बात छलक उट्ठेंगे

उस का सीना भी धड़क उट्ठेगा

उस की बाँहों में नया ख़ून सिमट आएगा

उस के माथे पे नई सुब्ह उभरती होगी

उस के होंटों पे नए गीत लरज़ते होंगे

उस की आँखों में नया हुस्न निखर आएगा

एक तर्ग़ीब नज़र आएगी

उस के होंटों के सभी गीत चुरा ही लूँगा

ओह क्या सोच रहा हूँ मुझे कुछ याद नहीं

मैं तसव्वुर में घरौंदे तो बना लेता हूँ

अपनी तन्हाई को पर्दों में छुपा लेता हूँ

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