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मक़ाम-ए-दिल बहुत ऊँचा बना है - अख़्तर ओरेनवी कविता - Darsaal

मक़ाम-ए-दिल बहुत ऊँचा बना है

मक़ाम-ए-दिल बहुत ऊँचा बना है

कमंद-ए-अक़्ल अब तक ना-रसा है

फ़रोग़-ए-इश्क़ से बेताब जल्वे

हरीम-ए-नाज़ में महशर बपा है

मिज़ाज-ए-हुस्न में ये दर्द-मंदी

ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ क्या से क्या हुआ है

ख़िरद है जुस्तुजू-ए-सोज़-ए-आतिश

मोहब्बत आरज़ू-ए-बरमला है

नवाज़िश उन की मुहताज-ए-मोहब्बत

मिरी कम-माएगी का आसरा है

चमन की निकहत-अफ़्शानी का बाइ'स

ये मौज-ए-गुल है या मौज-ए-सबा है

भला क्यूँ हो तुझे मेरी ज़रूरत

कि तू सारे ज़माने का ख़ुदा है

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