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लिखा है मुझ को भी लिखना पड़ा है - अख़्तर नज़्मी कविता - Darsaal

लिखा है मुझ को भी लिखना पड़ा है

लिखा है मुझ को भी लिखना पड़ा है

जहाँ से हाशिया छोड़ा गया है

अगर मानूस है तुम से परिंदा

तो फिर उड़ने को पर क्यूँ तोलता है

कहीं कुछ है कहीं कुछ है कहीं कुछ

मिरा सामान सब बिखरा हुआ है

मैं जा बैठूँ किसी बरगद के नीचे

सुकूँ का बस यही एक रास्ता है

क़यामत देखिए मेरी नज़र से

सवा नेज़े पे सूरज आ गया है

शजर जाने कहाँ जा कर लगेगा

जिसे दरिया बहा कर ले गया है

अभी तो घर नहीं छोड़ा है मैं ने

ये किस का नाम तख़्ती पर लिखा है

बहुत रोका है इस को पत्थरों ने

मगर पानी को रास्ता मिल गया है

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