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ख़याल उसी की तरफ़ बार बार जाता है - अख़्तर नज़्मी कविता - Darsaal

ख़याल उसी की तरफ़ बार बार जाता है

ख़याल उसी की तरफ़ बार बार जाता है

मिरे सफ़र की थकन कौन उतार जाता है

ये उस का अपना तरीक़ा है दान करने का

वो जिस से शर्त लगाता है हार जाता है

ये खेल मेरी समझ में कभी नहीं आया

मैं जीत जाता हूँ बाज़ी वो मार जाता है

मैं अपनी नींद दवाओं से क़र्ज़ लेता हूँ

ये क़र्ज़ ख़्वाब में कोई उतार जाता है

नशा भी होता है हल्का सा ज़हर में शामिल

वो जब भी मिलता है इक डंक मार जाता है

मैं सब के वास्ते करता हूँ कुछ न कुछ 'नज़मी'

जहाँ जहाँ भी मिरा इख़्तियार जाता है

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